वो भी क्या दिन थे

सुबह होते ही घड़ी की सुइयां और मोबाइल पर वाट्स ऑप मैसेज या मिस्ड कॉल देखने की आदत पड़ गई है। और अगर इस दौरान कोई गड़बड़ी हो गई तो दिमाग तनाव से भर जाता है। वैसे ये बात तो मै भी मानती हूँ की कुछ बाते मन में एक गहरी छाप छोड़ जाती हैं लेकिन गलती से ही सही अगर आपके चहरे पे मुस्कान आ गई तो एक झटके में आप अपनी तकलीफ भुल जाते हैं।अब अाप सोच रहे होंगे कि बात कहां की कहां जा रही है। दरअसल इस भाग दौड़ वाली जिदंगी में हम खुद को कहीं खोते जा रहे हैं। मुझे आज तक समझ नहीं आया की आखिर हम काम करने के लिए जीते है, या जीने के लिए काम करते हैं। बचपन में सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला सवाल था कि बड़े होकर क्या बनना चाहती हो। शायद उस सवाल का जवाब अब जाकर मिला कि बड़े होकर फिर से बच्चा बनना हैं। शायद इस लिए ही हमसे हमारी pencil छीन के pen पकड़ा दी जाती है, कि अब हम गलतियां कर के उसे मिटा नहीं सकते। अब जाकर पता लगा की पापा के पैसो से शौक पूरे हुआ करते थे, अपने पैसो से तो बस जरूरतें पूरी हुआ करती हैं। दुनिया भर के लोग ये जानने में लगे हैं की मंगल गृह पे जीवन है या नहीं लेकिन किसी को क्या ये पता है की जीवन में मगंल है या नहीं। जिदंगी एक Auto driver की तरह हो कर रह गई है, सफर भी लम्बा है और जाना भी कहीं नहीं। वो भी क्या दिन थे जब हम बच्चे थे।

Innocence

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